Monday, 30 March 2020

प्रकृति और मनुष्य के स्वार्थी बुद्धि पर आधारित प्रस्तुत है यह कविता,मानव तुम कब तक सुधरोगें?

मेरे प्यारे दोस्तों,
आप सभी को पता है, की एक कोरोना वायरस जो कि चीन के वुहान सिटी से होकर, पूरे विश्व में फैल गया। और यह एक ऐसा वायरस है, जो कि लोगों से लोगों के संपर्क में रहनें से फैल रहा हैं।
प्रकृति की विनाशकारी रूप को देखते हुए। आज विश्व के सभी लोग। अपने घरों में छुपे रहने के लिए मजबूर है।
यहां कोरोना वायरस का आतंक इतना  ज्यादा बढ़ गया है। कि लोग इसके नाम से डर रहे हैं।
पर दोस्तों इस तरह का परिणाम, सिर्फ और सिर्फ प्रकृति को छेड़ने के वजह से ही उत्पन्न हुआ है। और आप लोगों को भी यह ज्ञात है, कि कोरोनावायरस जैसा बीमारी चमगादड़ के सूप पीने के कारण हुआ है।
इस तरह मानव जाति जब जब प्रकृति से  खिलवाड़ करने का कोशिश किया है,
तब तक मानव जाति को उसका भीषण परिणाम भी भोगना पड़ा है।
प्रस्तुत है यह कविता जो कि यह संदेश दे रहा है कि मनुष्य को के प्रकृति के सभी संपदाओ से स्नेह करना चाहिए, ना की दुर्व्यवहार।
उम्मीद है यह कविता आप लोगों को अच्छी लगेगी।

कविता:      (मानव तुम कब तक सुधरोगें?)

मानव कब तक तुम सुधरोगे?
चेतना गई, करुण भाव गए, मन से दया का भंडार गया!
अब इस तरह कब तक तुम बिगरोगें?
मानव कब तक तुम सुधरोगे?

मैनें सत्व गुण से सींचा तुमको, सर्व कला शास्त्र उपहार दिया।
सद्बुद्धि भरकर मैं तुझमें, नवजीवन का अद्भुत वरदान दिया।
परधरती पर जाकर तुमनें , सिर्फ कलंकित काम किया।
वैर ईर्ष्या से भरे रहे तुम और अधर्म का प्रसार किया...
अब इस तरह कब तक तुम मेरे स्वाभिमान से खेलोगे?
मानव कब तक तुम सुधरोगे?

धरती पर सब संतान है मेरे, पर्वत मेरे,वृक्ष हैं मेरे, पशु है मेरे, पुष्प है मेरे, पक्षी तो प्रिय प्राण है मेरे।
इन को नष्ट कर कब तक तुम,हमारे हृदय पर घात करतें फिरोगें।
मानव कब तक तुम सुधरोगे?
भेजा था धरती पर मैंने की तुम प्रकृति का सम्मान करोगे।
नीर,अन्न,और फल पुष्पों सें, जीवन का उद्धार करोगे।
पर धरती पर जाकर तुमने, हर जीवो से दुर्व्यवहार किया।
निर्ममता से मारा उनको, उसका ही आहार किया..
इस तरह मेरे संतानों को मारकर तुम कब तक मुझे रुलाते फिरोगें?
मानव तुम कब तक सुधरोगे?

तुमने हमारे जंगलों को काटा, नई मशीनें बनाई, उद्योगों का निर्माण किया,
हर ओर प्रदूषण फैलाया।

इस तरह तुम कब तक हमारी संपदा को नष्ट करते फिरोगे?
मानव कब तक तुम सुधरोगे?

कुदरत को भूल तुम खुद को एक शक्तिशाली इंसान समझ बैठे हो। ओ मुर्ख मानव तुम क्यों खुद को भगवान समझ बैठे हो?
इस तरह नासमझ बन,तुम कब तक भटकते फिरोगें?
मानव तुम कब तक सुधरोगे?

तुमने खुद ही बना ली है,अपनी अस्तित्व मिटाने के रास्ते।
इसीलिए कहता हूँ छोड़ दो हिंसा, छोड़ दो धर्मों की लड़ाई।

मत बनो ऊंच-नीच मत करो प्रकृति से लड़ाई,
इस तरह कब तक अपने अस्तित्व मिटाते फिरते रहोगे?
मानव  कब तक तुम सुधरोगे?

अगर अभी भी तुम ना सुधरे, मैं खुद धरती पर आऊंगा।
विकराल काल का रूप मैं लेकर,एक ऐसा प्रलय मचाऊँगा-
धरती से तेरा अस्तित्व हटाकर  हटाकर, फिर एक नई सृष्टि रचाउँगा।

ममता हूँ,मां हूँ, इसीलिए तो हर बार कहता हूंँ।
मानो तुम जागो,फिर सें एक बार जागों
मैं हमेशा तेरे साथ रहूंगा।
और यही इंतजार है मेरा कि मानव तुम कब तक सुधरोगे?2

संदेश:-अभी सें भी खुद को बदल लो, नहीं तो फिर प्रकृति तुझे बदलनें का मौका नहीं देगी।

मनोरम काव्य मंथन विडियों(अवश्य देखें):👇

यदि हमारा यह आर्टिकल आपको पसंद आया हों तो कृप्या मेरे ब्लॉग को फौलो करें।।हम अगलें बलॉग में इस्से भी अच्छी आर्टिकल लेकर आयेंगें

तब तक के लिए नमस्कार :
आपका अपना दोस्त गौरव मिश्रा।।🙏🙏



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